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ब्रिटिश शासन और अट्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति।

हमारा देश भारत कभी सोने की चिड़िया थी। इसकी संपन्नता और वैभव की धूम संपूर्ण विश्व में मची थी। भारतीय व्यापारी शिल्प की वस्तुएं, गरम मसाला और विभिन्न वस्तुओं को अन्य देशों में बेचकर धन कमाते थे। शिल्प की वस्तुएं,और गरम मसाले विदेशों में विशेष आकर्षण का केंद्र था। जो अनेक देशों को व्यापार करके धन कमाने के लिए भारत की ओर आकर्षित किया। तत्कालिक शासक के द्वारा पुर्तगालियों को भारत में व्यापार करने की स्वीकृति मिल गई। जो आगे चलकर धन कमाने के लालच से फ्रांस, इंग्लैंड और हालैंड के व्यापारीयों को भी आकर्षित किया। अनेक राष्ट्रों के व्यापारियों के आगमन पर व्यापार में स्वामित्व को लेकर संघर्ष होने लगा। अंतः इस संघर्ष में इंग्लैंड से आए व्यापारियों को सफलता मिली। इंग्लैंड के व्यापारियों ने व्यापार करते हुए भारतीय राजनीति में भी हस्तक्षेप करना प्रारंभ कर दिया। धीरे-धीरे व्यापार करने वाला इंग्लैंड भारत का स्वामी बन बैठा।
31 दिसंबर 1600 ई० में भारत से व्यापार करने के लिए इंग्लैंड के व्यापारियों ने ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना की। इस कंपनी ने भारत में व्यापार करता ही रहा साथ ही साथ अपने सैनिक शक्ति को भी बढ़ानी प्रारंभ कर दी। इस कंपनी ने कई स्थानों पर किले बनाकर अपनी सेनाएं संगठित कर ली।
23 जून 1757 ई० में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला के विरोध प्लासी के युद्ध की विजय ने अंग्रेजों को बंगाल का शासक बना दिया। उनके द्वारा व्यापारिक सुविधाओं का दुरुपयोग प्रारंभ हुआ। भारत से सस्ते दर पर कच्चे माल इंग्लैंड जाने लगे और वहां के तैयार माल यहां आकर बिकने लगे। जिसके कारन भारत में बेरोजगारी बढ़ी गए। अनेक शिल्पी बेकार हो गए। अंग्रेजों की शक्ति जैसे-जैसे बढ़ती गई वह देशी राजाओं और रियासतों पर अधिकार जमाते गए। 
1798 ई० लार्ड वेलेजली की सहायक संधि और 1848 ई० लॉर्ड डलहौजी की हड़प नीति ने भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव पक्की कर दी। अंग्रेजों ने भारत के संसाधनों को जी भर कर लूटा। उनके आर्थिक नीतियां इंग्लैंड के लाभ पर आधारित थीं। इंग्लैंड की औद्योगिक क्रांति ने भारतीय कुटीर उद्योग धंधों को नष्ट कर दिया। भारतीय कारीगर बेरोजगार और देशी राजा एवं नवाब अंग्रेजों के हाथ की कठपुतली मात्र रह गए थे।
भारत की जनता पर ब्रिटिश शासन के अन्याय और अत्याचार की कहर। भारतीय सैनिकों के साथ पक्षपातपूर्ण व्यवहार, सेना में ऊंचे पद नहीं दिए जाते थे। भारतीय जनमानस का आक्रोश अट्ठारह सौ सत्तावन ईसवी की क्रांति के रूप में फूट पड़ा।

भारतीय सैनिकों से गाय और सुअर की चर्बी लगे कारतूस ओं को मुंह से खुलवाया जाता था। अंग्रेजों के इस कार्य ने हिंदू एवं मुसलमान दोनों को भड़का दिया। 9 मई 1857 में मेरठ छावनी में सैनिकों ने क्रांति का बिगुल बजा दिया। मेरठ के क्रांतिकारियों ने दिल्ली के लाल किले पर कब्जा जमा लिया। मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर को अपना नेता मान लिया। धीरे-धीरे क्रांति का लावा समूचे देश में फैलता चला गया। 
कानपुर में विद्रोह का नेतृत्व नाना साहब ने किया, लखनऊ में बेगम हजरत महल , बिहार में कुंवर सिंह तथा झांसी में महारानी लक्ष्मीबाई ने क्रांतिकारियों का नेतृत्व किया। क्रांतिकारियों ने अंग्रेजी सेना का मुकाबला बड़ी बहादुरी और दृढ़ता के साथ किया। इस क्रांति में जन सामान्य देशी राजा, सैनिक और नवाबों ने बढ़ चढ़कर भाग लिया। हिंदू और मुसलमान एकजुट होकर अंग्रेजों से लड़े।

20 नवंबर 1857 महारानी लक्ष्मीबाई दामोदर राव को झांसी के उत्तराधिकारी के लिए गोद लिया लेकिन अंग्रेजों ने दत्तक पुत्र को उत्तराधिकारी मानने से इनकार किया और झांसी को अपने राज्य में मिला लिया। महारानी लक्ष्मीबाई को यह स्वीकार नहीं था। वह स्वयं घोड़े पर सवार होकर दोनों हाथों में तलवारें लेकर झांसी की स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजी सेना पर टूट पड़ी। रानी की वीरता ने अंग्रेजी सेना के छक्के छुड़ा दिए। वीर रानी झांसी की रक्षा के लिए वीरगति को प्राप्त हुई। इतिहास में आज भी उनका नाम अमर है।

अंग्रेजों ने संगठित सेना लेकर कठोरता से क्रांति का दमन करना प्रारंभ कर दिया। अंग्रेजी सेना के अत्याचार चरण सीमा को भी पार कर गए। अंग्रेजों ने गांव को आग लगवा दी। लोगों को पेड़ों पर लटका कर फांसी देकर मार डाला। गांव के सभी लोगों को तोप से उड़ा दिया। मानवता से मानवता हार गई। बहादुर शाह जफर के दो पुत्रों का सिर कटवा दिया गया। बहादुर शाह को रंगून (बर्मा) की जेल में बंद कर दिया गया। इसी जेल में बहादुर शाह जफर ने अंतिम सांस ली।

अट्ठारह सौ सत्तावन ई० की क्रांति के बाद भारत से कंपनी का शासन समाप्त हो गया। भारत अब इंग्लैंड की महारानी के अधीन हो गया। भारत में वायसराय की नियुक्ति की गई। भारतीय जनता पर अंग्रेजों के शोषण का चक्र पूर्ववत् चलता रहा। भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम असफल हो गया। इस संग्राम ने भारतीयों के हृदय में स्वतंत्रता की ज्वाला भड़का दी। सभी भारतीय एकजुट होकर भारत माता की गुलामी की बेड़ियां काटने को तत्पर हो उठे। अंग्रेज भी भारत को अधिक समय तक गुलाम नहीं रख सके। इस क्रांति का शुभ परिणाम 15 अगस्त 1947 ईस्वी को भारत को स्वतंत्रता के रूप में देखने को मिला।


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